Wednesday 23 October 2013

कचरा उठाने का हक

उसका नाम माला था, जो उन दिनों आठवीं कक्षा में पढ़ रही थी। पढ़ने में तेज थी। मगर रोज सुबह उसे अपनी मा के साथ मध्यमवर्गीय इलाके में घर-घर जाकर कूड़ा बीनते देखा जा सकता था। कुछ दिन बाद उसे पढ़ाई छोड़नी पड़ी और इन दिनों वह अपनी नानी-दादी की तरह इसी 'पेशे' में लगी है। अपने आसपास नजर दौड़ाएं तो माला अपवाद नहीं है।

कई बार कई बातें सुनने में जनपक्षीय लगती है, लेकिन दूरगामी तौर पर वह बात उस समुदाय विशेष के पक्ष में कितनी रह जाती है, यह पड़ताल करने का विषय है। कुछ समय पहले दिल्ली के जंतरमंतर पर देश के कई भागों से कचरा चुनने के रोजगार से जुड़े मजदूर हजारों की संख्या में एकत्र हुए थे। दिल्ली में भी कुछ संस्थाएं इस समुदाय से जुड़कर काम करती हैं।

इन कचरा बीनने वालों के हालात तथा स्वास्थ्य समस्या पर कई सर्वेक्षण भी हुए हैं और कुछ संस्थाओं ने भी प्रकाश डाला है। इनके स्वास्थ्य आमतौर पर खराब हो जाते है। टीबी और सास की बीमारी तथा चमड़ी के रोग भी लग जाते हैं। खासतौर से शहरों तथा महानगरों में छोटे-छोटे बच्चे सुबह अंधेरे काम पर लग जाते हैं। उनका बचपन कैसे बीतता है, यह किसी से छिपा नहीं है। बड़े होकर वे क्या बन पाते हैं, यह भी सभी को पता है। ये ठंड, धूप, बारिश में भी मेहनत करते हैं और इनके हित की लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं।

असंगठित क्षेत्र में कही भी ट्रेड यूनियन मजबूत हालत में नहीं है, जो इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार के काम करने वालों के पक्ष में निर्णय के लिए सरकार को मजबूर कर सके। ऐसे में अगर कोई इनके बेहतर जीवनस्तर के लिए काम करे तो स्वागत ही होगा तथा अपने हक के लिए संगठित होना लाजमी और जरूरी भी है यानी ऐतराज इस बात का नहीं है कि उन्हें बेहतरी के लिए संगठित न किया जाए, बल्कि सोचने का मुद्दा ऐसे संगठनों द्वारा सरकार के समक्ष उठाई जाने वाली मागों से जुड़ा है।

एक अहम मांग यह होती है कि जो सदियों से कचरा उठा रहे हैं, उन्हें उठाने दिया जाए। मालूम हो कि यह काम कुछ निजी कंपनिया अपने हाथों में लेना चाहती हैं, जिसके खिलाफ एकजुटता बनाई गयी है यानी प्रमुख मुद्दा रोजगार का है और वह उनसे छीन नहीं लिया जाए, उसे बचाया जाए।

रोजगार तो निश्चित ही सभी के पास होना चाहिए। यह तो जरूरी हक है, लेकिन रोजगार का गरिमामय भी होना उतना ही जरूरी है। दूसरी बात, हमारे समाज में आमतौर पर कम प्रतिष्ठा प्राप्त रोजगार कुछ जाति विशेष के लोग ही करते हैं। क्यों नहीं वह रोजगार ऐसा बन जाए, जिसमें काम के बेहतर हालात बनें, वेतन, पेंशन, स्वास्थ्य की गारंटी हो और सभी के लिए खुला हो। रोजगार को किसी जाति-बिरादरी के दायरे से बांधा न जाए। उल्टे हमारे यहा सरकारें भी इस बात की गारंटी करती हैं कि असम्मानजनक पेशों में उसी समुदाय के लोग लगे रहें।

हरियाणा में सत्तासीन काग्रेस सरकार ने अपनी पिछली पारी में दलित उत्थान को लेकर जो सरकारी विज्ञापन प्रकाशित करवाया था, उसमें इसी बात को रेखाकित किया गया था कि 'दलितों के लिए एक सुनहरा अवसर कि 11 हजार सफाई कर्मचारी अनुसूचित जातियों से ही भर्ती किए जाएंगे।'

तीन साल पहले अपने आप को अंबेडकर की सियासत का असली वारिस कहने वाली बसपा की सुप्रीमो मायावती ने भी हरियाणा के करनाल में आयोजित एक विशाल रैली में ऐलान किया कि अनुसूचित जातियों विशेषकर वाल्मीकि समुदाय के उत्थान के लिए यूपी सरकार द्वारा लिए गए 'ऐतिहासिक निर्णय', जिसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में सफाई के लिए वाल्मीकि समुदाय के लिए एक लाख से अधिक स्थाई नौकरिया देने की घोषणा की गई।

इस कचरा बटोरने में भी 90 से 92 प्रतिशत संख्या बच्चों और महिलाओं की होती है। जैसे कि मैला उठाने का काम भी महिलाओं के हिस्से में ही था। अगर रोजगार के तर्क से ही सिर्फ देखेंगे तो वह भी रोजगार है, फिर उस पर क्यों प्रतिबंध लगे।

अर्थात जो भी इस तबके के लिए काम करें या यूनियन गठित हो, उसमें तात्कालिक हालत सुधारने के साथ दूरगामी रूप से भेदभाव खत्म करने पर भी जोर होना चाहिए। जैसे दिल्ली में कई जगहों पर एमसीडी की गाड़ियां कूड़ा एकत्र करने लगी हैं। उसमें भी इंसान ही घर में कचरा एकत्र करता है, लेकिन वह हाथ में दस्ताने तथा नाक मुंह पर मास्क लगाए होता है। उसका कूड़ा गाड़ी के पिछले हिस्से में बंद होता है यानी उसे बदबू कम देर के लिए सहनी पड़ती है। हालात वह भी बहुत अच्छे नहीं हैं, लेकिन वह एक कर्मचारी की हैसियत रखता है यानी एक मांग होगी कि इस काम से जुड़े लोगों को सुविधा दी जाए तथा दूसरी मांग होगी कि इसे ऐसा संगठित क्षेत्र बनाया जाए, जिसमें सरकार या निजी क्षेत्र की कोई ऐसी कंपनी जिम्मा ले, जिसमें काम करने वाले नौकरीपेशा की तरह माने जाएं और उन्हें वह हर सुविधा मिले, जो किसी कर्मचारी को मिलती है।

क्या हम किसी ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं, जिसमे वर्तमान में जो लोग और जिनकी संख्या लाखों में है, यदि उन्हें सामाजिक स्तर पर भरपूर विकास के अवसर मिले होते और शैक्षणिक अवसर भी अच्छा मिला होता, रोजगार के प्रतिष्ठित विकल्प भी उनके सामने मौजूद होते तब भी वे इस बात के लिए लड़ते कि उन्हें कचरा चुनने दिया जाए?

शहरों में गंदे नालों/सीवरों की सफाई एक भारी मुसीबत है। क्या यह देखने में किसी सभ्य इंसान को बहुत अच्छा लगता होगा कि कोई इंसान छाती या गर्दन तक गंदे कीचड़ में उतर कर उनकी सफाई करे? इस काम को प्राथमिकता में लेकर इनका मशीनीकरण क्यों नहीं करती सरकारें? क्या पश्चिम के मुल्कों में नाली या सीवर नहीं होते होंगे? वे कैसे उनकी साफ-सफाई करते हैं? कोई यह भी दलील दे सकता है कि हमारा देश पश्चिम वाला थोड़े ही है? यहा का अपना परिवेश है और यहा इतना पैसा भी नहीं है। इन सब बातों को सिरे से ही खारिज कर मानवीय गरिमा सुनिश्चित करना अब प्राथमिकता होनी चाहिए।

हमारी सरकार गरीब नहीं है। यहा की विकास दर भी कम नहीं है। अगर कम दिखती है तो बड़े विकास कार्य रोक दे, माल और फ्लाईओवर बाद में बनें, कार, एसी वगैरह की फैक्टरिया बंद कर दी जाएं या उन्हें कोई छूट न दे सरकार या फिर टैक्स सख्ती से वसूले आदि। यानी मूल प्रश्न नजरिए का और प्राथमिकता तय करने का है। कोई भी संगठित प्रयास या यूनियन सिर्फ इसलिए नहीं बने कि फलां काम को बचाना है, बल्कि इसलिए कि वहा काम के हालात बदलें, काम की प्रतिष्ठा बढ़े और भेदभाव खत्म हो। जाति आधारित, जेंडर आधारित रोजगार के वे आधार खत्म हों, जो समाज में भेद करें।

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